Wednesday, 8 May 2019

खोज ...



कहां रहती हैं जिंदगी आजकल, न कोई खबर ना कोई पता.
न जाने कहां और कब चली गयी पता ही नही चला !
अब मैं ना उगता हुआ चांद देखता हूं ना तुम डुबता हुआ सुरज देखती हो.
तुम्हे अपनोंसे फुरसत नही और मुझे कामसे ! कहा गये मेरे हिस्से के वो लम्हे ? याद करो आखिरी बार हम एक साथ कब भीगे थे ?
स्कूटर पे बैठ कर सुहानी शाम देखने गये थे ?
न तुम अब घुंघट ओढ लेती हो और ना मै तुम्हारा खुलासा रोशन चेहरा जी भर के देख पाता हूं.
सब कुछ तो वही हैं पर बदला बदलासा क्यूं लग रहा हैं ?
किताबोंके पन्ने में छिपायी हुई गुलाब की पंखुडीया जो तुमने दी थी, वो कही गुम नही हुई है पर कही नजर भी नही आ रही.
बागो में बहार तो वही हैं मगर फुल क्यों रुठे रुठे से हैं ?
न तुम अब सजती संवरती हो और ना ही मैं गजरा लेके आता हुं फिर भी महक आंगनसे क्यों आती हैं ?
बेडरूम में हमबिस्तर होता हुं पर बीच वाली नई दिवार कब बनी पता ही नही चला.
आईने में देखता हुं तो कुछ नजर नही आता क्या शिशेने भी अब मुंह फेर लिया है ?
घडी की टिकटिक सून पाता हुं पर दिल की धडकन सून नही पा रहा,
खुले आसमां तले घुमता हुं पर बादल को देख के शायद अर्सा बीत गया हैं ! क्या आसमां में अभी भी वो नादां परिंदे घुमते हैं ?
झील की लहरो पें फेके हुये पत्थर अब ख्वाब में आते नही नाही आती हैं वो सहमी हुयी सांसे !
दूर रहता था कभी तो भी तुम्हे करीब महसूस करता था मगर अब क्या हुआ है की करीबी को आजमाना पड रहा है.
आखिर ये फासले कहांसे आये क्या ये भी अपने जिंदगी के ही हिस्से हैं. सुलझाना चाहता हुं हर बात मगर खुद ही उलझ रहा हुं, क्या तुम भी ऐंसा महसूस कर रही हो ?
बेबाक हो कें जी भर के गालीया तो दो मगर युं बेजान सुरतसे सूखी बाते न किया करो.
चलो मिलके ढुंढते है वक्तके ऊस लम्हे को जो इस भागदौड में न जाने कहां खो गये हैं...
साथ आओगी ना ?

- समीर.....

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