सूखी रोटीयां सिसकती है जहाँ कोने में,
न जाने कौन सोता है नंगे पाँव खुली सडक पे
आंसू सूखते है जहाँ अंधियारी गलियोंमें,
खामोशी से तडपती इन्सानियत चौराहे पे
जाती पुछती नही माटी जहाँ इन्सानसे,
झुलसते बदन को लगाती है सहमें सीने से
कतरोंकी खूनके किंमत नही होती लोगोंसे,
न जाने ये कौनसी हवा आ रही है वतनसे !
- समीर गायकवाड.
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